प्रश्नः साहित्य पढ़ने-लिखने की शुरुआत कब और कैसे हुई?
उत्तरः साहित्य में मेरी रुचि बचपन से ही रही है।बचपन में पाठ्य पुस्तकों में शामिल कविता, कहानी, निबंध आदि को मैं बड़े चाव से पढ़ा करता था।उस वक्त इतिहास, भूगोल, गणित, विज्ञान आदि विषयों को भी मैं पूरे मनोयोग से पढ़ता था।पढ़ने की मुझे आदत हो गई।नवीं कक्षा से मैं डायरी लिखने लगा।डायरी लिखने के दौरान मैं कुछ तुकबंदियां करने लगा।कॉलेज की पढ़ाई के दौरान मेरा यह शौक़ जग-ज़ाहिर होने लगा।मैं कॉलेज में होने वाले साहित्यिक व सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर भागीदारी करने लगा।
प्रश्नः आप विज्ञान के विद्यार्थी रहे हैं। विज्ञान और साहित्य का यह मेल किस तरह आगे बढ़ा?
उत्तरः विज्ञान विषयों में भी मेरी गहरी रुचि रही है।स्नातक स्तर पर मैं जीव विज्ञान का विद्यार्थी रहा हूँ।स्नातक की पढ़ाई के बाद मुझे यह महसूस हुआ कि मुझे रचनात्मक लेखन वाले कार्यक्षेत्र में अपना करियर बनाना चाहिए।इसलिए मैंने दिल्ली विश्वविद्यालय के दक्षिण परिसर से पत्रकारिता एवं जनसंचार में स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम की पढ़ाई की।पत्रकारिता के क्षेत्र में भी मैं विधि संवाददाता के रूप में कार्य करना चाहता था।इसलिए मैंने विधि स्नातक की शिक्षा भी प्राप्त की।लेकिन समय को कुछ और ही मंज़ूर था, कालक्रम में मैं वकालत के पेशे में आ गया।
प्रश्नः वाक़ई बड़ा दिलचस्प रहा आप का शैक्षणिक सफर।वकालत जैसे रूखे माने जाने वाले व्यवसाय को करते हुए एक कवि-कथाकार की संवेदना को आप कैसे जीवित रख पाए?
उत्तरः वकालत के पेशे में रहते हुए अपने पढ़ने-लिखने के शौक़ को बनाए रखना आसान क़तई नहीं था।लेकिन एक कहावत है कि जहाँ चाह होती है वहाँ राह निकल ही आती है।मेरे साथ भी यही हुआ।वकालत के पेशे में रहते हुए भी शहर के तमाम कवि-लेखकों से मेरा मिलना-जुलना चलता रहा।मैं साहित्यिक कार्यक्रमों में शिरकत करता रहा।और इस तरह अपनी रचनात्मकता को जीवित बनाए रखने में कामयाब रहा।
प्रश्नःअब तक आप कविता-कहानी की कई किताबें लिख चुकें हैं।उनके बारे में कुछ बताइए?
उत्तरः जी ज़रूर।वर्ष 2004 में मेरा पहला कविता संग्रह ‘गिरती हैं दीवारें’ प्रकाशित हुआ।उसके करीब 9 साल बाद वर्ष 2013 में मेरा एक कहानी संग्रह ‘पर्दों के उस पार’ प्रकाशित हुआ।तत्पश्चात् वर्ष 2017 में मेरा दूसरा कहानी संग्रह ‘वक्त से रूबरू’ प्रकाशित हुआ।इसके बाद वर्ष 2019 में मेरा दूसरा कविता संग्रह ‘बुतों के शहर में’ और वर्ष 2022 में तीसरा कविता संग्रह ‘ नियंता नहीं हो तुम’ प्रकाशित हुए हैं।
प्रश्नः आप की बहुत सारी कविताओं, कहानियों को पढ़ते हुए ऐसा महसूस होता है जैसे अपनी रचनाओं के माध्यम से आप प्रकृति की उपासना कर रहे हों, इस मनोदशा की कोई ख़ास वजह?
उत्तरः आप ने बिल्कुल सही समझा है।मेरी नज़र में ईश्वर, प्रकृति, समय और सत्य एक ही हैं।जब आप इस ब्रह्मांड की संरचना, पृथ्वी पर जीवन के ताने-बाने को जानने-समझने का प्रयास करते हैं तो स्वाभाविक रूप से आप सत्य का अन्वेषण कर रहे होते हैं।और जितना आप प्रकृति के गूढ़ रहस्यों को समझते हैं उतना ही ईश्वर की संकल्पना को अनुभव कर पाते हैं।इसलिए मुझे मेरी रचनाओं के माध्यम से आप प्रकृति की वंदना करते हुए पाएँगे।
प्रश्नः आप पिछले एक दशक से अमर भारती साहित्य संस्कृति संस्थान से जुड़कर निरंतर साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन करते आ रहे हैं।अपनी इस यात्रा के बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
उत्तरः अमर भारती साहित्य संस्कृति संस्थान की स्थापना सुप्रसिद्ध गीतकार आदरणीय डॉ धनंजय सिंह जी ने की है।उन्होंने ही मुझे इस संस्थान का सदस्य बनाया।पिछले एक दशक से उनके मार्गदर्शन में व अन्य रचनाकारों के सहयोग से साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन किया जा रहा है।इन कार्यक्रमों के माध्यम से हम स्थापित रचनाकारों का तो सम्मान करते ही हैं साथ ही नए रचनाकारों को भी मंच उपलब्ध कराते हैं।
प्रश्नः आप ने अब तक करीब सैकडों साहित्यिक कार्यक्रमों का आयोजन करते हुए ग़ाज़ियाबाद शहर के साहित्यिक परिवेश को समृद्धि प्रदान करने का भरसक प्रयास किया है।इन आयोजनों को करते हुए किस तरह की चुनौतियों का सामना करना पड़ा है?
उत्तरः यह बहुत ज़रूरी सवाल पूछा है आप ने।इस संबंध में मैं बताना चाहूँगा कि इन 10 सालों के दौरान एक उपयुक्त आयोजन स्थल की कमी से हम जूझते रहे हैं।कभी किसी कॉलेज के सभागार में तो कभी किसी स्कूल के सभागार में हमारे उपरोक्त कार्यक्रम होते रहे हैं।लेकिन ऐसी कोई सार्वजनिक जगह हमें आज तक उपलब्ध नहीं हो पाई जहाँ नियमित रूप से अपने कार्यक्रम कर सकें।न ही किसी सरकारी संस्था के द्वारा हमें कोई आर्थिक सहयोग प्रदान किया गया है।जो भी किया गया है वह कुछ साहित्य प्रेमी लोगों के सहयोग से किया गया है।
प्रश्नः शहर में ‘हिंदी भवन’ और ‘पंडित दीन दयाल उपाध्याय सभागार’ जैसे सार्वजनिक स्थल मौजूद हैं।आप वहाँ अपने कार्यक्रम क्यों नहीं करते हैं?
उत्तरः यह भी आप ने खूब कहा।इस बारे में मैं बताना चाहूँगा कि हिंदी भवन का निर्माण ग़ाज़ियाबाद विकास प्राधिकरण ने व पंडित दीन दयाल उपाध्याय सभागार का निर्माण ग़ाज़ियाबाद नगर निगम ने सार्वजनिक धन से कराया है।लेकिन अब इन दोनों ही आयोजन स्थलों का प्रबंधन निजी हाथों को सौंप दिया गया है।रख-रखाव के नाम पर इनका प्रबंधन सँभाल रहे लोग हम से पचास हज़ार या एक लाख रूपयों की माँग करते हैं।इसलिए ये स्थान हमारे लिए निरर्थक साबित हो रहे हैं।
प्रश्नः तमाम विपरीत परिस्थितियों के बावजूद आप साहित्य साधना कर रहे हैं, यह वाकई सराहनीय बात है।आप यूँ ही सक्रिय रहें और साहित्य की सेवा करते रहें, इन्हीं शब्दों के साथ आप को 50वें जन्मदिन की हार्दिक शुभकामनाएँ।
उत्तरः आप का हार्दिक आभार।मैं इस अवसर पर अपने सभी साहित्यिक गुरूजनों, मित्रों, पत्रकार बंधुओं व पाठकों का बहुत बहुत आभार व्यक्त करना चाहूँगा, जिनके निरंतर स्नेह व सहयोग से मुझे कुछ नया लिखने की प्रेरणा मिलती रही है।